Maheshwari Akhada is the supreme Gurupeeth of Maheshwari Community, the highest religious-spiritual management body of Maheshwari Samaj. Actually, the tradition of Maheshwari Gurupeeth is more than 5000 years old. When Lord Mahesha (Lord Shiva) founded Maheshwari Samaj on the day of Jyeshtha Shukla Navami in 3133 BC, since then the Maheshwari community celebrates this day as the foundation day of Maheshwari Samaj and in the name of Mahesh Navami. Then, along with the establishment of Maheshwari community, Lord Mahesh ji had entrusted the responsibility of guiding the Maheshwari community to 6 Gurus (Rishis); Maheshwari Gurupeeth tradition was started by these 6 Gurus, But in the time cycle this Maheshwari Gurupeeth tradition got disintegrated. In the year 2008, this highest Gurupeeth of Maheshwari community was legally and officially re-established with the name of Divyshakti Yogpeeth Akhara. At the time of official establishment its name was recorded as "Divyshakti Yogpeeth Akhara", but it is popularly known as "Maheshwari Akhada".
The president of Maheshwari Akhara (Divyashakti Yogpeeth Akhara) is decorated with the title of Maheshacharya. The post of Maheshacharya is equivalent to Shankaracharya and Pope. Only the President (Peethadhipati) of the highest Gurupeeth of Maheshwari Samaj “Divyashakti Yogpeeth Akhara” is entitled/officially authorized to be decorated with the title of “Maheshacharya”. The first Peethadhipati of Maheshwari Gurupeeth was Maharishi Parashar, hence Maharishi Parashara is the Adi Maheshacharya. Presently Yogi Premsukhanand Maheshwari is the Peethadhipati of Divyashakti Yogpeeth Akhara (Maheshwari Akhada) and Maheshacharya.
According to the constitution of Maheshwari Akhada, the main function of this Akhada is to protect religion and Maheshwari culture. The main objective of Maheshwari Akhada is to organize, enrich and strengthen Maheshwari community. The main objective of the Akhara is to maintain the culture and cultural identity of the Maheshwari community and to increase unity in the society through well-organized management so that there is all-round development of the society.
For more info of Maheshwari Akhada please click on this link > जानिए माहेश्वरी अखाड़ा के बारेमें... क्या है विरासत, मुख्य उद्देश्य और कार्य
जानिए माहेश्वरी अखाड़े के बारेमें, क्या है माहेश्वरी अखाड़ा?
माहेश्वरी अखाड़ा (जिसका आधिकारिक नाम दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा है) माहेश्वरी समुदाय का सर्वोच्च धार्मिक गुरुपीठ है, माहेश्वरी समाज की शीर्ष/सर्वोच्च धार्मिक-आध्यात्मिक प्रबंधन संस्था है। वैसे तो माहेश्वरी गुरुपीठ की परंपरा 5000 वर्ष से भी ज्यादा पुरातन है। जब इसा पूर्व 3133 में, ज्येष्ठ शुक्ल नवमी के दिन भगवान महेश जी ने माहेश्वरी समाज की वंशोत्पत्ति/उत्पत्ति की थी, इसी दिन को माहेश्वरी समुदाय माहेश्वरी समाज के स्थापना दिवस के रूपमें तथा महेश नवमी के नाम से मनाता है। तब माहेश्वरी समुदाय के स्थापना के साथ साथ ही भगवान महेश जी ने माहेश्वरी समाज को मार्गदर्शित करने का दायित्व 6 गुरुओं (ऋषियों) को सौपा था; इन्ही 6 गुरुओं द्वारा माहेश्वरी गुरुपीठ परंपरा की शुरुआत की गई थी लेकिन समय चक्र में यह माहेश्वरी गुरुपीठ परंपरा विघटित हो गई। वर्ष 2008 में माहेश्वरी समाज के इस सर्वोच्च गुरुपीठ को कानूनी एवं आधिकारिक तौर पर "दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा" के नाम से पुनः स्थापित किया गया। आधिकारिक स्थापना के समय इसका नाम "दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा" दर्ज किया गया था, लेकिन यह "माहेश्वरी अखाड़ा" के नाम से प्रसिद्ध है, लोकप्रिय है।
For more information about Maheshacharya (महेशाचार्य), click on this link > The Maheshacharya (महेशाचार्य), Peethadhipati – Maheshwari Akhada (Maheshwari Gurupeeth)
माहेश्वरी अखाड़ा (दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा) के पीठाधिपति "महेशाचार्य" की उपाधि से अलंकृत होते है। महेशाचार्य पद शंकराचार्य और पोप के समकक्ष है। केवल माहेश्वरी समाज के सर्वोच्च गुरुपीठ "दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा" के अध्यक्ष (पीठाधिपति) ही "महेशाचार्य" की उपाधि से अलंकृत होने के अधिकारी है / आधिकारिक रूप से अधिकृत है। माहेश्वरी गुरुपीठ के प्रथम पीठाधिपति महर्षि पराशर थे इसलिए महर्षि पराशर "आदि महेशाचार्य" है। वर्तमान में योगी प्रेमसुखानंद माहेश्वरी "दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा (माहेश्वरी अखाड़ा)" के पीठाधिपति और महेशाचार्य हैं।
माहेश्वरी अखाड़े के विधान के अनुसार इस अखाड़े का मुख्य कार्य धर्म की, माहेश्वरी संस्कृति की रक्षा करना है। माहेश्वरी अखाड़े का मुख्य उद्देश्य माहेश्वरी समाज को संगठित करना, समृद्ध करना, सुदृढ़ करना है। समाज की संस्कृति, सांस्कृतिक पहचान बनाये रखना एवं सुव्यवस्थित प्रबंधन के माध्यम से समाज में एकता को बढ़ाना जिससे की समाज का सर्वांगीण विकास हो यह अखाड़े का प्रमुख उद्देश्य है। आवश्यक होने पर सांस्कृतिक, सामाजिक इत्यादि से सम्बन्धित कार्य भी अखाड़े के माध्यम से किये जाने का प्रावधान है। माहेश्वरी समाज, धर्म और राष्ट्र का गौरव बढ़ाने तथा इनके सर्वांगीण प्रगति और संरक्षण-संवर्धन के लिए कार्य करना माहेश्वरी अखाड़े का मुख्य उद्देश्य है।
ज्यादातर माहेश्वरीयोंने कुम्भमेला और उसके सन्दर्भ में अखाड़ा शब्द सुना हुवा है लेकिन 'माहेश्वरी अखाड़ा' के बारे में ना सुना है न उन्हें इसकी जानकारी है। तो फिर अचानक ये माहेश्वरी अखाड़ा कहाँ से उत्पन्न हो गया यह प्रश्न मन में आना स्वाभाविक है। इसे समझने के लिए हमें पहले कुछ बातों को जानना आवश्यक है। ज्यादातर माहेश्वरी लोगों को माहेश्वरी वंशोत्पत्ति कैसे हुई? किसने की? कब हुई? कहाँ हुई? क्यों हुई? इसके बारे में ही जानकारी नहीं है, उस समय और उसके बाद क्या क्या हुवा इसकी भी जानकारी ज्यादातर माहेश्वरीयों को नहीं है। इसलिए माहेश्वरी अखाड़े को जानने-समझने से पहले माहेश्वरी समाज की ऐतिहासिक पार्श्वभूमि को जानना होगा... इन उपरोक्त बातों को जानने के लिए पुस्तक "माहेश्वरी उत्पत्ति एवं संक्षिप्त इतिहास" जरूर पढ़े।
संक्षेप में कहें तो, माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के अनुसार माहेश्वरीयों/माहेश्वरी समाज को धर्म के मार्ग पर चलने के लिए मार्गदर्शन करनेका दायित्व भगवान महेशजी ने ऋषि पराशर, सारस्वत, ग्वाला, गौतम, श्रृंगी, दाधीच इन छः (6) ऋषियों को सौपा। कालांतर में इन गुरुओं ने महर्षि भारद्वाज को भी माहेश्वरी गुरु पद प्रदान किया जिससे माहेश्वरी गुरुओं की संख्या सात हो गई जिन्हे माहेश्वरीयों में सप्तर्षि कहा जाता है। इन सप्तगुरुओं ने माहेश्वरी समाज के प्रबंधन और मार्गदर्शन का कार्य सुचारू रूप से चले इसलिए एक 'गुरुपीठ' को स्थापन किया जिसे "माहेश्वरी गुरुपीठ" कहा जाता था। इस माहेश्वरी गुरुपीठ के इष्ट देव 'महेश परिवार' (भगवान महेश, पार्वती, गणेश आदि...) थे। सप्तगुरुओं ने माहेश्वरी समाज के प्रतिक-चिन्ह 'मोड़' (जिसमें एक त्रिशूल और त्रिशूल के बीच के पाते में एक वृत्त तथा वृत्त के बीच ॐ (प्रणव) होता है) और ध्वज का सृजन किया (देखें Link > Maheshwari Religious Symbol – Mod)। ध्वज को "दिव्य ध्वज" कहा गया। दिव्य ध्वज (केसरिया रंग के ध्वजा पर अंकित मोड़ का निशान) माहेश्वरी समाज की ध्वजा बनी (देखें Link > Maheshwari Flag)। गुरुपीठ के पीठाधिपति “महेशाचार्य” की उपाधि से अलंकृत थे, इसलिए उन्हें "महेशाचार्य" कहा जाता था (देखें Link > आदि महेशाचार्य)। "महेशाचार्य" यह माहेश्वरी समाज का सर्वोच्च गुरु पद माना जाता है। इस माहेश्वरी गुरुपीठ के माध्यम से समाजगुरु माहेश्वरी समाज को मार्गदर्शित करते थे। माना जाता है की वंशोत्पत्ति के बाद कुछ शतकों तक यह गुरुपीठ परंपरा चलती रही, लेकिन समय के प्रवाह में माहेश्वरी गुरुपीठ की यह परंपरा खंडित हो गई (इसी कारन से लगभग पिछले चार हजार वर्षों से माहेश्वरी समाज के गुरुपीठ के बारे में ना किसी ने कुछ सुना ना ही किसी को इसकी जानकारी है)। यह माहेश्वरीयों का, माहेश्वरी समाज का दुर्भाग्य है की जाने-अनजाने में माहेश्वरी समाज अपने गुरुपीठ और गुरूओंको भूलते चले गए। परिणामतः समाज को उचित मार्गदर्शन करनेवाली व्यवस्था ही समाप्त हो गई जिससे समाज की बड़ी हानि हुई है और आज भी हो रही है। माहेश्वरी समाजजनों को समाजहित में इस बात को गंभीरता से समझते हुए सही और उचित दिशा में कदम बढ़ाने चाहिए।
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"अखाड़ा" संस्कृत वर्ण माला का शब्द है, इसे व्यापक रूप से सनातन धर्म के 'प्रमुख मठ' के लिए प्रयोग किया जाता है, इसे 'पीठ' भी कहा जाता है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि सनातन धर्म की रक्षा के लिए अखाड़े हमेशा कवच बने रहे। सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति के संरक्षण में इनका बहुत बड़ा योगदान है। अखाड़े के पीठाधिपति प्रायः धर्म गुरु होते है और इनके द्वारा मुख्यतः आध्यात्मिक कार्य और आध्यात्मिक मार्गदर्शन किया जाता है पर ऐसा हमेशा नही होता। आवश्यक होने पर, इन कार्यो के अतिरिक्त सांस्कृतिक, सामाजिक, शैक्षणिक इत्यादि से सम्बन्धित कार्य भी अखाड़े के माध्यम से किये जाते हैं। अखाड़े सनातन धर्म के अनुयायियों को मार्गदर्शित और अनुशाषित करनेवाली एक व्यवस्था है जिससे की सनातन धर्म का संरक्षण-संवर्धन हो।
अखाड़ों का इतिहास आदि शंकराचार्य के सनातन धर्म को बचाने के प्रयासों से जुड़ा हुवा है। माना जाता है कि आदि शंकराचार्य ने भारत में, देश के चार कोनों में-
(1) उत्तर दिशा में बदरिकाश्रम में "ज्योतिर्पीठ" (स्थापना- युधिष्ठिर संवत् 2641-2645)
(2) पश्चिम में द्वारिका में "द्वारिका शारदा पीठ" (स्थापना- युधिष्ठिर संवत् 2648)
(3) दक्षिण में "शृंगेरी पीठ" (स्थापना- युधिष्ठिर संवत् 2648)
(4) पूर्व दिशा में जगन्नाथपुरी में "गोवर्द्धन पीठ" (स्थापना- युधिष्ठिर संवत् 2655)
इन चार पीठों की स्थापना की। इन चार पीठों के प्रमुखों को 'शंकराचार्य' कहा जाता है। इनका कार्य मात्र आध्यात्मिक मार्गदर्शन तक ही सिमित था। आदि शंकराचार्य ने इन चार पीठों की स्थापना कर सनातन धर्म का संरक्षण-संवर्धन करने की कोशिश की। लेकिन इसी दौरान उन्हें लगा कि जब समाज में धर्म की विरोधी शक्तियां सिर उठा रही हैं, तो सिर्फ आध्यात्मिक शक्ति के जरिए ही इन चुनौतियों का मुकाबला करना काफी नहीं है। इसलिए आदि शंकराचार्य ने जोर दिया कि युवा साधु कसरत करके शरीर को सुदृढ़ बनाएं और कुछ हथियार चलाने में भी कुशलता हासिल करें। इसके लिए ऐसे मठ स्थापित किए गए, जहां कसरत के साथ ही हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया जाने लगा। ऐसे ही मठों को अखाड़ा कहा जाने लगा। उन्होंने ये भी सुझाव दिया कि मठ, मंदिरों, श्रद्धालुओं और धर्म की सुरक्षा के लिए जरूरत पड़ने पर शक्ति का इस्तेमाल किया जा सकता है। इस तरह अखाड़ों का जन्म हुआ।
वर्तमान समय में व्यायामशाला को भी अखाड़ा कहते हैं और साधु-संन्यासियों के आश्रम, मठ या रुकने के स्थान को भी अखाड़ा कहा जाता है। हालांकि आधुनिक व्यायामशाला (कुश्ती के अखाड़े) का निर्माण समर्थ रामदास स्वामी की देन है, लेकिन संतों के अखाड़ों का निर्माण पुरातन समय से ही चला आ रहा है। पुरातन समय में राष्ट्र और धर्म दोनो की रक्षा के लिए अखाड़े के साधू-संत अपने ज्ञान, साधना (अनुसन्धान), अपनी अस्त्र-शस्त्र विद्या का उपयोग भी किया करते थे। वर्तमान समय में अखाड़े के साधु संत सनातन धर्म के प्रचार प्रसार का कार्य करते हैं। अखाड़े के पीठाधिपति, आचार्य, साधु-संत और कथावाचक अखाड़े के माध्यम से योग शिक्षा (योग शिविर), कथा वाचन एवं प्रवचन आदि के द्वारा सनातन धर्म का प्रचार प्रसार करते हैं। आज के समय में भी अखाड़े धर्म तथा राष्ट्र पर संकट आने पर ज्ञान और उचित मार्गदर्शन आदि से लोगों को सही राह पर लाने के लिए तत्पर रहते हैं।
अखाड़ों का इतिहास आदि शंकराचार्य के सनातन धर्म को बचाने के प्रयासों से जुड़ा हुवा है। माना जाता है कि आदि शंकराचार्य ने भारत में, देश के चार कोनों में-
(1) उत्तर दिशा में बदरिकाश्रम में "ज्योतिर्पीठ" (स्थापना- युधिष्ठिर संवत् 2641-2645)
(2) पश्चिम में द्वारिका में "द्वारिका शारदा पीठ" (स्थापना- युधिष्ठिर संवत् 2648)
(3) दक्षिण में "शृंगेरी पीठ" (स्थापना- युधिष्ठिर संवत् 2648)
(4) पूर्व दिशा में जगन्नाथपुरी में "गोवर्द्धन पीठ" (स्थापना- युधिष्ठिर संवत् 2655)
इन चार पीठों की स्थापना की। इन चार पीठों के प्रमुखों को 'शंकराचार्य' कहा जाता है। इनका कार्य मात्र आध्यात्मिक मार्गदर्शन तक ही सिमित था। आदि शंकराचार्य ने इन चार पीठों की स्थापना कर सनातन धर्म का संरक्षण-संवर्धन करने की कोशिश की। लेकिन इसी दौरान उन्हें लगा कि जब समाज में धर्म की विरोधी शक्तियां सिर उठा रही हैं, तो सिर्फ आध्यात्मिक शक्ति के जरिए ही इन चुनौतियों का मुकाबला करना काफी नहीं है। इसलिए आदि शंकराचार्य ने जोर दिया कि युवा साधु कसरत करके शरीर को सुदृढ़ बनाएं और कुछ हथियार चलाने में भी कुशलता हासिल करें। इसके लिए ऐसे मठ स्थापित किए गए, जहां कसरत के साथ ही हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया जाने लगा। ऐसे ही मठों को अखाड़ा कहा जाने लगा। उन्होंने ये भी सुझाव दिया कि मठ, मंदिरों, श्रद्धालुओं और धर्म की सुरक्षा के लिए जरूरत पड़ने पर शक्ति का इस्तेमाल किया जा सकता है। इस तरह अखाड़ों का जन्म हुआ।
वर्तमान समय में व्यायामशाला को भी अखाड़ा कहते हैं और साधु-संन्यासियों के आश्रम, मठ या रुकने के स्थान को भी अखाड़ा कहा जाता है। हालांकि आधुनिक व्यायामशाला (कुश्ती के अखाड़े) का निर्माण समर्थ रामदास स्वामी की देन है, लेकिन संतों के अखाड़ों का निर्माण पुरातन समय से ही चला आ रहा है। पुरातन समय में राष्ट्र और धर्म दोनो की रक्षा के लिए अखाड़े के साधू-संत अपने ज्ञान, साधना (अनुसन्धान), अपनी अस्त्र-शस्त्र विद्या का उपयोग भी किया करते थे। वर्तमान समय में अखाड़े के साधु संत सनातन धर्म के प्रचार प्रसार का कार्य करते हैं। अखाड़े के पीठाधिपति, आचार्य, साधु-संत और कथावाचक अखाड़े के माध्यम से योग शिक्षा (योग शिविर), कथा वाचन एवं प्रवचन आदि के द्वारा सनातन धर्म का प्रचार प्रसार करते हैं। आज के समय में भी अखाड़े धर्म तथा राष्ट्र पर संकट आने पर ज्ञान और उचित मार्गदर्शन आदि से लोगों को सही राह पर लाने के लिए तत्पर रहते हैं।